Advanced Pregnancy Care: मेडिकल साइंस में हो रही तेज़ प्रगति ने गर्भावस्था के दौरान मां और बच्चे की देखभाल को पूरी तरह नई दिशा दे दी है। अब गर्भ के शुरुआती चरण में ही बच्चे से जुड़ी कई गंभीर बीमारियों की पहचान संभव हो गई है और कुछ मामलों में गर्भावस्था के दौरान ही उपचार भी किया जा रहा है। समय-समय पर जांच कराए जाने से होने वाले बच्चे को कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से काफी हद तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
ये बातें फेडरेशन ऑफ ऑब्सटेट्रिक एंड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया (FOGSI) की जेनेटिक्स एंड फीटल मेडिसिन कमेटी की चेयरमैन और अपोलो अस्पताल, कोलकाता की वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. सीथा रामामूर्ति पाल ने कहीं। वे शनिवार को जमशेदपुर ऑब्सटेट्रिक्स एंड गायनोकोलॉजिकल सोसाइटी (JOGS) के द्विवार्षिक समारोह के अवसर पर बिष्टुपुर स्थित एक होटल में आयोजित कार्यक्रम को संबोधित कर रही थीं।
:डॉ. रामामूर्ति पाल ने बताया कि फीटल मेडिसिन और जेनेटिक जांच में आई नई तकनीकों की मदद से गर्भ के पहले तीन महीनों में ही बच्चे की स्थिति काफी हद तक स्पष्ट हो जाती है। तीसरे महीने तक बच्चे की शारीरिक संरचना विकसित हो जाती है, जिससे पहली जांच में ही कई जन्मजात विकृतियों की पहचान संभव हो जाती है। उन्होंने कहा कि जिन समस्याओं का इलाज संभव होता है, उन्हें गर्भावस्था के दौरान ही ठीक किया जा सकता है।
उन्होंने गर्भधारण से लेकर प्रसव से पहले तक कम से कम तीन अल्ट्रासाउंड जांच को अनिवार्य बताया। विशेष रूप से पांचवें महीने में होने वाला अल्ट्रासाउंड और एनाटॉमी स्कैन बच्चे में जेनेटिक समस्याओं, रीढ़ की हड्डी से जुड़ी गड़बड़ियों और अन्य गंभीर बीमारियों की विस्तृत जानकारी देता है। वहीं, गर्भावस्था के अंतिम चरण में की जाने वाली जांच से बच्चे की संपूर्ण सेहत का आकलन किया जाता है, जिससे माता-पिता को पहले से आवश्यक तैयारी का अवसर मिलता है।
डॉ. रामामूर्ति ने कहा कि कुछ जन्मजात विकृतियां ऐसी होती हैं, जिनका इलाज वर्तमान मेडिकल साइंस से संभव नहीं है। ऐसे मामलों में समय पर जांच होने से माता-पिता की सहमति के साथ आगे की प्रक्रिया तय की जा सकती है, जिससे परिवार को सही निर्णय लेने में मदद मिलती है और मानसिक तनाव भी कम होता है।
उन्होंने बताया कि देश में लगभग 50 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं, जिसके प्रमुख कारण पोषण की कमी, असंतुलित जीवनशैली और नियमित जांच का अभाव है। एनीमिया का सीधा असर न केवल मां की सेहत पर पड़ता है, बल्कि बच्चे के विकास पर भी पड़ता है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि झारखंड और पश्चिम बंगाल में थैलेसीमिया के मामले अपेक्षाकृत अधिक सामने आ रहे हैं, जिनकी पहचान अब गर्भावस्था के दौरान ही की जा रही है।
वरिष्ठ चिकित्सक ने कहा कि 35 वर्ष के बाद गर्भधारण करने वाली महिलाओं में जटिलताओं का खतरा बढ़ जाता है। आंकड़ों के अनुसार औसतन हर 700 गर्भवती महिलाओं में एक बच्चा डाउन सिंड्रोम से प्रभावित पाया जाता है, जबकि 40 वर्ष की उम्र के बाद यह जोखिम और अधिक बढ़ जाता है। उन्होंने समय पर जांच और विशेषज्ञ परामर्श को सुरक्षित मातृत्व की कुंजी बताया।


